रेवांचल टाईम्स - राणा प्रताप जी राजस्थान के छोटे से क्षेत्र मेवाड़ में जन्म लिया राणा प्रताप ने। जिनका राणा से महाराणा और महाराणा से महान महाराणा प्रताप बनने का सफर बेहद संघर्षपूर्ण रहा है। कर्नल जेम्स टॉड लिखते हैं कि जब अकबर के पास महाराणा प्रताप के देहावसान का समाचार पहुंचा तो वह भी एक बार अपने अदम्य प्रतिद्वंदी की मृत्यु पर उदास हो गया और शोक प्रकट किए बिना नहीं रह सका। इतिहासकारों द्वारा महाराणा प्रताप का मूल्यांकन अलग अलग प्रकार से किया गया है। लेकिन फिर भी वे सभी एक बात पर सहमत होते हैं कि राणा प्रताप का नाम इतिहास में एक ऐसे योद्धा के रूप में लिखा गया है जो अपने वचन पर अटल रहा। अटल प्रतिज्ञापालक, अदम्य स्वाभिमानी, स्वतन्त्रता प्रेमी तथा महान त्यागी के रूप में महाराणा प्रताप पूरे भारतवर्ष में पूजनीय हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि अकबर एक अत्यंत दूरदर्शी और राजनीतिज्ञ शासक था। यही कारण है कि वह न सिर्फ अपने आसपास बल्कि दूर दराज के इलाकों को भी अपनी अधीनता में लाना चाहता था। देश को राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से एकता के सूत्र में पिरोने की अकबर की योजना भले ही आदर्श रही हो, परंतु ये अनेकों परिस्थितियों में गुलामी का अहसास करवाने वाली भी थी। जितनी सच्चाई इस बात में है कि महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार कर अपने और अपने राज्य के लिए नाना प्रकार की सुख सुविधाएं प्राप्त कर सकते थे, ठीक उतनी ही सच्चाई इस बात में भी है कि अगर महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेते तो आज राजस्थान और भारत के इतिहास में उनका जो स्थान है, वह नहीं होता। हम व्यक्तिगत रूप से महाराणा प्रताप को शौर्य, स्वाभिमान और समर्पण की मूर्त कहते हैं, और ऐसा कहने के हमारे पास पर्याप्त कारण भी हैं। पहला, राणा उदय सिंह के निधन के बाद राणा प्रताप मेवाड़ की गद्दी पर आसीन हुये। गद्दी पर बैठते ही अकबर के दूत या शिष्ट मण्डल के रूप में जलाल खान महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करवाने के उद्देश्य से मेवाड़ पहुंचा। इसके बाद क्रमश: मान सिंह, भगवान दास और टोडर मल भी ऐसी ही इच्छा लेकर मेवाड़ की धरा पर आए लेकिन सभी को यहाँ से मायूस होकर जाना पड़ा। अकबर के भेजे गए शिष्ट मण्डल महाराणा प्रताप को नाना प्रकार के प्रलोभन दे रहे थे, यहाँ तक कि केवल अधीनता स्वीकार कर लेने के बदले अकबर ने महाराणा प्रताप को आधा हिंदुस्तान देने का वादा कर दिया। परंतु स्वाभिमान के पुजारी राणा प्रताप अपने वचन से डिगे नहीं और अटल रहे। राणा प्रताप का अतिथि बनने के लिए राजा मान सिंह जब कुंभलगढ़ पहुंचा तो उदय सागर पर मान सिंह के लिए भोजन की तैयारी की गई लेकिन राणा प्रताप ने ये कहते हुये भोजन करने से मना कर दिया कि मैं ऐसे राजपूत के साथ भोजन नहीं कर सकता, जो अपनी बहन-बेटियों का विवाह एक तुर्क के साथ कर सकता है। अपमानित होकर राजा मान सिंह वापस लौटा और इसका परिणाम हल्दीघाटी के युद्ध के रूप में निकला। दूसरा, राणा प्रताप ने अपने राज्य की स्वाधीनता को पुन: प्राप्त करने के लिए अकबर के खिलाफ कई युद्ध लड़े। वर्ष 1576 में लड़ा गया हल्दीघाटी युद्ध तो विश्वप्रसिद्ध है। हल्दीघाटी के भयंकर पहाड़ी स्थान पर राणा प्रताप ने अपने भाले और तलवार से ऐसा कहर मचाया कि शत्रु सेना के खेमे में हलचल पैदा हो गई। अपने प्रिय घोड़े चेतक पर सवार होकर राणा प्रताप ने पहले अकबर के पुत्र जहांगीर और बाद में सेनापति मान सिंह पर जो वार किए, ऐसा प्रतीत होता था कि युद्ध भूमि साक्षात काल प्रकट हो गए हों। हल्दीघाटी का युद्ध भले ही अनिर्णायक रहा हो, परंतु इसके बाद मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए अकबर द्वारा भेजे गए हर सेनापति को महाराणा प्रताप ने मौत के घाट उतार दिया। दिवेर के युद्ध में तो राणा प्रताप का बाहुबल तो शत्रुओं को अगले कई जन्मों तक याद रहा होगा। ये राणा प्रताप का शौर्य ही था कि आगामी वर्षों में उन्होने अकबर के अधिकार वाले लगभग सभी ठिकाने और चौकियाँ पुन: अपने आजाद करवा ली। तीसरा, कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार जब राणा प्रताप मेवाड़ के राजसिंहासन पर विराजमान हुये, उस समय न उनके पास राजधानी थी और न ही राज्य के वैभव। बेहद विकट परिस्थितियों में राणा प्रताप ने अपने राज्य के उद्धार का बीड़ा उठाया। महाराणा उदय सिंह के समय अकबर ने चित्तौड़ को पराजित किया और अधिकार कर लिया। अकबर ने चित्तौड़ की तमाम शक्तियों का सर्वनाश कर डाला था। राणा प्रताप ने इन दुर्बल परिस्थितियों को भी सहर्ष स्वीकार किया और आगे की योजना बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया। चित्तौड़ की स्वाधीनता और स्वाभिमान को पुन: जीवित करने के लिए राणा प्रताप ने अपने और अपने वंश वालों के लिए बेहद कठोर नियम बनाए और इन नियमों का पालन भी पूर्ण रूप से समर्पित भाव के साथ हुआ। इतिहासकारों के मुताबिक राजपूतों ने अपनी दाढ़ी-मूंछों को बनवाना बंद कर दिया, भूमि पर सोना शुरू किया और भोजन के समय बर्तनों के नीचे किसी न किसी वृक्ष की पत्ती रखना शुरू किया। अपने राज्य की आन-बान-शान वापस पाने के लिए महाराणा प्रताप का समर्पण इन बातों में साफ झलकता है। महाराणा प्रताप की महानता लिखते लिखते इतिहासकारों के शब्द समाप्त हो जाते हैं, उन्नीसवीं सदी के महान इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने विदेशी होते हुये भी महाराणा के शौर्य, अदम्य साहस, उत्कृष्ट वीरता, त्याग और प्रतिज्ञा पालन, बलिदान का निष्पक्ष एवं सटीक वर्णन किया है। महाराणा प्रताप के जीवन पर लिखने के पथ में कविराजा श्यामलदास, मुंशी देवी प्रसाद, गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि इतिहासकारों ने भी तथ्यात्मक रूप से बेहतर कार्य किया। हालांकि वर्तमान के कुछ स्वघोषित इतिहासकार एक तरफ जहां महाराणा प्रताप को स्वाभिमान और स्वाधीनता की रक्षा हेतु लड़ने वाला शासक बताते हैं, वहीं दूसरी तरफ वे राणा प्रताप को अकबर के तथाकथित राष्ट्रीय एकता के कार्य में बाधा डालने वाला एवं संकीर्ण उद्देश्यों हेतु लड़ने वाला, हानिकारक एवं नकारात्मक व्यक्तित्व दर्शाते हैं। लेकिन लेख का सार है कि अकबर जैसे शक्तिशाली शत्रु से प्रताप जिस प्रकार बिना झुके और बिना टूटे जीवन भर संघर्ष करते एवं लोहा लेते रहे, ये हमारे लिए बेहद गौरवान्वित करने वाला है। राणा प्रताप जैसे शूरवीर युगों युगों में ही होते हैं। राणा प्रताप का जीवन इस धरती पर जीवित हर प्राणी के लिए एक आदर्श है, विकट परिस्थितियों और संसाधनों के अभाव में भी किस प्रकार हालातों से लड़ा और जीता जा सकता है, ये राणा प्रताप का जीवन हमें बखूबी सिखाता है। भारतवर्ष के महान योद्धा, स्वाभिमान, शौर्य और समर्पण के प्रतीक वीर शिरोमणि श्री महाराणा प्रताप को कोटि कोटि नमन।
तनवीर सिंह सन्धू
राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी, विरासत
संरक्षण एवं जीर्णोद्धार समिति
No comments:
Post a Comment