मण्डला 15 फरवरी 2023
जवाहरलाल नेहरू कृषि
विश्वविद्यालय जबलपुर अंतर्गत संचालित कृषि विज्ञान केन्द्र मण्डला जिले के
किसानों के साथ-साथ प्रदेश के अन्य जिले के किसान जैसे- उमरिया, शहडोल, अनूपपुर, डिंडौरी, सिवनी, बालाघाट एवं जबलपुर जिले के लगभग 800 किसान भ्रमण कर चुके हैं। कृषि विज्ञान केन्द्र मण्डला के
वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख डॉ. के.व्ही. सहारे के मार्गदर्शन में केन्द्र के
मृदा वैज्ञानिक डॉ. आर.पी. अहिरवार द्वारा विभिन्न प्रदर्शन इकाईयों का भ्रमण
कराते हुए विस्तारपर्वूक जानकारी दी जा रही है। केन्द्र की प्रदर्शन इकाईयां
किसानों के लिये आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। प्रदर्शन इकाईयों में प्रमुख रूप
से प्राकृतिक खेती अंतर्गत प्राकृतिक खेती फसल प्रदर्शन इकाई किसानों को आकर्षित
कर रही हैं।
प्राकृतिक खेती अंतर्गत
चना एवं गेहू की फसल लगाई गई है। चना एवं गेहू की फसल में किसी भी प्रकार के
रासायनिक, उर्वरकों, कीटनाशकों, कवकनाशकों तथा खरपतवारनाशकों का प्रयोग नहीं किया गया है। केन्द्र के
वैज्ञानिक डॉ. आर.पी. अहिरवार ने जानकारी देते हुए बताया कि रसायनिकों के स्थान पर
घर व प्रक्षेत्र पर उपलब्ध प्राकृतिक आदानों का उपयोग करके प्राकृतिक खेती के मूल
स्तम्भ जैसे- बीजामृत, जीवामृत, अच्छादन, व्हापसा, का प्रयोग किया
जाता है। बीजामृत का प्रयोग बीज उपचार के लिये किया जाता है, इससे बीज व मृदा जनित रोगों से छुटकारा मिल जाता है। जीवामृत का प्रयोग पोषक
तत्व प्रबंधन के लिये किया जाता है। जीवामृत दो तरह से तैयार कर सकते हैं तरल एवं
घन जीवामृत बनाकर सिचाई जल के साथ या फसल पर छिड़काव कर सकते हैं। एक एकड़ क्षेत्रफल
के लिये 200 लीटर जीवामृत पर्याप्त है। अच्छादन का
प्रयोग खरपतवार नियंत्रण ताप संरक्षण एवं मृदा नमी संरक्षण के लिये किया जाता है।
अच्छादन के रूप में धान व किसी भी फसल अवशेष खेत में बुवाई के बाद अंकुरण के
उपरांत बिछा दिया जाता है जिससे मृदा में सूक्ष्मजीवी की क्रियाशीलता में वृद्धि
एवं केचुओं की गतिविधि बढ़ जाती है। साथ ही मृदा में कार्बन का स्तर बढ़़ जाता है।
मृदा में 50 प्रतिशत नमी एवं 50 प्रतिशत हवा की
स्थिति को व्हापसा कहते हैं। व्हापसा में सिचाई को महत्व न देकर मृदा नमी को महत्व
दिया जाता है। कीट व रोगों से फसल सुरक्षा के लिये नीमास्त्र, अग्निअस्त्र एवं दसपर्णी अर्क, पंचगब्य अमृत जल एवं
फफूंदनाशक काढ़ा बनाकर प्रयोग करते हैं। इनको बनाने के लिये विभिन्न पौधों की
पत्तियां जैसे- नीम, करंज, बेल, सीताफल, धतूरा, अकोना, बेसरम का प्रयोग करते हुए गौमूत्र एवं गौबर
का प्रयोग करके तैयार किया जाता है। इनका प्रयोग करने से फसलों में रोग व कीट का
नियंत्रण हो जाता है अगर इनके काढ़ों का प्रयोग कीट व रोग लगने से पूर्व किया जाये
तो अधिक फायदा मिलता है और हमारी फसल सुरक्षित रहती है। अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष
2023 अंतर्गत केन्द्र की कार्यक्रम सहायक केतकी धूमकेती द्वारा
कोदो कुटकी के महत्व पर जागरूकता के लिये जानकारी दी जा रही है। केन्द्र के
पशुपालन वैज्ञानिक डॉ. प्रणय भारती द्वारा पशुपालन अंतर्गत पशुओं की बिमारियांे के
नियंत्रण पर जानकारी दी गई। साथ ही संतुलित आहार प्रबंधन पर जानकारी दी जा रही है
ताकि आय में वृद्धि हो सके। साथ ही पशुधन की प्राकृतिक खेती में भूमिका पर जानकारी
दी गई।
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