रेवांचल टाईम्स - मंडला, सितार-संतूर की जुगलबंदी ने वातावरण को बनाया रागमय
मंडला शनिवार को मंडला की माटी में आराम फरमा रहे मशहूर चित्रकार मरहूम सैयद हैदर रज़ा की 6वीं पुण्यतिथि पर रज़ा स्मृति में शामिल कलाकार, कवि और उनके चाहने वालों ने श्रद्धा सुमन अर्पित किए। सुबह 10 बजे रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित रज़ा स्मृति के तहत विभिन्न कलाकार व उनके सभी चाहने वाले स्थानीय बिंझिया स्थित कब्रिस्तान पहुंचकर कर महान कलाकार को अपनी श्रद्धांजलि दी। सैयद हैदर रज़ा और पिता सैयद मोहम्मद रज़ी की कब्र पर चादर चढ़ाई गई।
इसके पूर्व शुक्रवार की शाम ख्यातनाम, विश्वप्रसिद्ध मशहूर चित्रकार हैदर रजा़ की पूण्य स्मृति में आयोजित चित्रकला सहित अनेक पारंपरिक कलाओं से सुसज्जित रज़ा फाउंडेशन ने बहुत गरीमामय आयोजन को अतिविशेष बना दिया। इसमें प्रख्यात साहित्यकार, विद्वतगुणीजन पं.अशोक वाजपेयी सहित अनेक कलाकारों ने शिरकत की। उज्जैन से पधारी देश की प्रसिद्ध कलाकार सुश्री संस्कृति-प्रकृति वाहने ने अपने सितार-संतूर में अपने जुगलबंदी के माध्यम से प्राकृतिक बारिस की बूंदों से प्रेरित होकर राग चारुकेशी में - आलाप, जोड़, झाला के साथ ताल झपपताल और तीनताल में बंदिशो की प्रस्तुति देकर सम्पूर्ण वातावरण को रागमय, स्वरमय और तालमय बना दिया जिसकी सुगंध से संपूर्ण मंडला सुगंधित हो गया। दोनों ने अपनी तालीम अपने पिताश्री डाॅ. लोकेश वाहने और दादा गुरु पद्मश्री उस्ताद शाहिद परवेज़ से ले रही हैं। पं. निशांत शर्मा ने तबले पर बहुत ही सुकूनदारी से संगत की।
रज़ा साहब को याद करते हुए उनके मित्र व रज़ा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी ने कहा कि आज रज़ा साहब की छटवी पुण्यतिथि है। 6 बरस पहले इसी जगह पर उनका अंतिम संस्कार किया गया था। 24 जुलाई को उस वक्त बड़ी बारिश थी, बड़ी मुश्किल से हम उनके शव को नागपुर और नागपुर से मंडला लेकर आये थे। उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार हुआ था। मध्यप्रदेश में मुझे याद नहीं आता कि किसी और चित्रकार का कभी अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ हुआ हूं। वे मंडला को कभी नहीं भूले। मंडला को याद करते हुए हमेशा नर्मदा जी को याद करते थे। उनका मुझे यह निर्देश था कि यदि मेरी मृत्यु फ्रांस में हो तो मुझे अपनी पत्नी के बगल में दफन किया जाए। वहां कब्र अभी भी खाली है। दूसरा यह था कि अगर उनका इंतकाल भारत में हो तो उनको मंडला में उनकी पिता की कब्र के बगल में दफन किया जाए। उनके पिता सैयद मोहम्मद रज़ी यहां डिप्टी फॉरेस्ट रेंजर थे। अंग्रेजों के जमाने में एक छोटे से गांव में जिसमें कुल 10 झोपड़ीनुमा मकान थे उनमें से एक में उनका जन्म हुआ।
मंडला के ककैया में उनका स्कूल था। क्योंकि उनका ध्यान पढ़ाई लिखाई में नहीं लगता था, उनका ध्यान एकाग्र करने के लिए उनके एक शिक्षक ने बरामदे की दीवार पर एक बिंदु बनाया और अपना ध्यान करो। यह बिंदु उनके दिमाग में बना रहा। उनको अपने प्राइमरी स्कूल के शिक्षकों के नाम याद थे। वे रोज उनके नाम लेते थे। वह इतने बार उनके नाम लेते थे कि मुझे भी उनके नाम याद होगा जैसे नन्द लाल झारिया, बेनी प्रसाद स्थापक और अन्य हालांकि मुझे अपने अध्यापकों के नाम याद नहीं है। पेरिस के सभी स्टूडियो में उनके अध्यापकों की तस्वीरें थी जो आज भी है। वह बहुत कृतज्ञ व्यक्ति थे। उन्होंने बहुत कठिन परिश्रम किया था और जब उनके पास पैसा आना शुरू हुआ तो उनको यह चिंता सताने लगी कि मुझे कुछ युवा कलाकारों के लिए कुछ करना चाहिए। आज से 20 - 21 बरस पहले रज़ा फाउंडेशन की स्थापना हुई। मैं उसके आरंभिक न्यासियों में से एक था। बाद में जब रज़ा साहब दिल्ली आए और अकेले रह गए थे तो बहुत कोशिश की उन को समझाने की कि पेरिस में मेडिकल सुविधाएं बड़ी मुश्किल से मिलती है, आप दिल्ली में ही रहिये। उन्होंने अपना सब कुछ रज़ा फाउंडेशन को दे दिया। ये सब आयोजन हम उसी से करते हैं।
यदि मै पाकिस्तान चला जाता तो यह महात्मा गांधी के साथ विश्वासघात होता -
उनका संस्मरण सुनाते हुए अशोक वाजपेयी कहते है कि रज़ा साहब के मंडला से लगाव की जो दो बड़ी वजह उसमे एक तो नर्मदा जी है। दूसरी वजह यह है कि उनकी उम्र करीब 11 बरस की रही होगी तब महात्मा गांधी मंडला आए थे और उन्होंने उस छोटी सी उम्र में महात्मा गांधी को देखा था। जब देश का बंटवारा हुआ तो उनका परिवार उनके दो भाई, बहन, पहली पत्नी सब पाकिस्तान चले गए। जब भी कोई उनसे पूंछता कि आप सबके साथ पाकिस्तान क्यों नहीं गए तो वो कहते कि यह मेरा वतन है मै इसे छोड़कर क्यों जाऊ ? एक मेरे बहुत कुरेदने पर उन्होंने कहा कि मैंने महात्मा गांधी को देखा है यदि मै पाकिस्तान चला गया होता तो यह महात्मा गांधी के साथ विश्वासघात होगा। जब रज़ा साहब जीवित थे और युवा कलाकार उनसे मिलने आते वे तो फर्श पर बैठकर घंटों उनके चित्र देखते हैं और उनको सलाह देते, डांटते, समझाते। जो चित्र पसंद आता उससे पूछते इसका दाम क्या है। युवा कलाकार तो पहले से ही अभिभूत रहता था, कि इतना बड़ा कलाकार उनका काम देख रहा है तो वो 3 हज़ार कह देते तो वह डांटते 3 नहीं 10 हज़ार। दाम पहले से ज्यादा रखो नहीं तो बाद में पछताओगे। उन पेंटिंग को वो अपने साथ पेरिस ले जाते।
बीसवीं शताब्दी का हिंदुस्तान गढ़ाने वालों में से थे रज़ा -
अशोक वाजपेयी का कहना है कि बीसवीं शताब्दी का हिंदुस्तान जिन लोगों ने गढ़ा है उनमे सैयद हैदर रज़ा का नाम शामिल है। वो मंडला के थे और हम उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए हम मंडला में यह आयोजन करते है। नागरिकों को जोड़ने की कोशिश करते हैं। हमको यहाँ के लोगों का बड़ा सहयोग मिल रहा है और धीरे-धीरे लोगों को समझ में आ जाएगा कि मंडला के दो ही स्मारक है एक नर्मदा और एक रज़ा। इससे बड़ा मंडला में कुछ और हुआ नहीं और इससे अधिक निरंतर भी कुछ नहीं हुआ। रज़ा साहब नहीं है लेकिन वो बने हुए है ठीक उसी तरह से जैसे नर्मदा तो बहती जाती है लेकिन पानी बदल जाता है फिर भी नर्मदा है। दो ही चीज़ मंडला में बचेंगी और बची है, एक नर्मदा और एक रज़ा। उन्ही की पुण्यतिथि में उन्हें श्रद्धांजलि देने हुआ यहाँ आए है।
संतूर और सितार की प्रस्तुति देने वाली प्रकृति व संस्कृति के पिता डॉ लोकेश वहाने ने कहा कि रज़ा साहब को मैं प्रणाम करता हूं कि उनकी पुण्यतिथि पर मुझे इस माटी को हृदय से लगाने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े ख्यातनाम कवि, साहित्यकार, विभिन्न कलाकार उपस्थित हुए और उसी कड़ी में मेरी दोनों बेटी संस्कृति और प्रकृति वाहने ने सितार और संतूर की जुगलबंदी के जरिए स्वरांजलि और आदरांजली अर्पित की है, उसके लिए मैं बड़ा शुक्रगुजार हूं और उम्मीद करता हूं कि रज़ा साहब का आशीर्वाद मेरे बच्चों पर और हम सब पर बना रहे।
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