रेवांचल टाईम्स डेस्क :- अजीब स्थिति है, देश की सबसे बड़ी जनसंख्या यानि किसान और अपने को विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कहने वाली भाजपा अपनी-अपनी जिद पर डटे हैं| भाजपा और सरकार को मार्गदर्शन करने वाला संघ मौन है | प्रधानमंत्री मन से मनमानी बात कर रहे हैं | भारतीय किसान संघ की भूमिका नेपथ्य में चली गई है | मार्च २०१३ को किसान और किसानी ले लिए सबकुछ कहने और करने का वादा करने वाले राजनाथ सिंह चुप है | ऐसे में याद आते हैं स्व. दत्तोपंत ठेंगडी जिनका शताब्दी वर्ष है और उनका प्रिय वर्ग किसान और मजदूर इस देश में हलकान हो रहा है |
यह सही है संविधान जहां अभिव्यक्ति की आजादी देता है और अभिव्यक्ति का सम्मान करता है, वहीं कानून के पालन की जरूरत को भी बताता है। कृषि सुधारों को दशकों से देश की जरूरत है यह बात आज भी भारत के राष्ट्रपति स्वीकार करते हैं|संसद में अपने अभिभाषण राष्ट्रपति ने विश्वास जताया कि सरकार इन कानूनों को लेकर सुप्रीमकोर्ट के निर्देशों का पालन करेगी।सवाल यह है इसे विवाद कौन बना रहा है, जो अदालत जाने की नौबत आ रही है | राष्ट्रपति की इच्छा के अनुरूप सरकार द्वारा वे बातें सार्वजानिक क्यों नहीं की जा रही जिससे उसके चलाये जा रहे कथित आत्मनिर्भर अभियान से खेती को मजबूती हो सकती है । सरकार कभी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य में डेढ़ गुना वृद्धि की बात करती है। तो कभी एमएसपी पर अनाज की रिकॉर्ड खरीदारी की बात । ये सब बातें किसान के गले क्यों नहीं उतर रही, एक बड़ा सवाल है |
संसद के बजट सत्र की शुरुआत में राष्ट्रपति के संबोधन का बहिष्कार हुआ । विरोध करने वाले दलों में सपा, राजद, शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस, माकपा,भाकपा, बसपा, अकाली दल व आम आदमी पार्टी शामिल रहे। इन राजनीतिक दलों का आरोप था कि पिछले सत्र में तीन कृषि कानूनों को पारित करने में पूरी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। वहीं सत्तारूढ़ दल ने मुख्य विषय को दरकिनार कर न्य विवाद खड़ा कर कहा कि राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख हैं, उनका राजनीतिक कारणों से विरोध करना अनुचित है। ऐसे में अनुमान लगाया जा रहा है कि कृषि सुधार कानूनों और गणतंत्र दिवस पर लाल किले की घटना पर विपक्ष बजट सत्र में आक्रामक तेवर दिखाने के मूड में है। मतलब सरकार को समझ जाना चाहिए कि किसान और किसानी का मुद्दा संसद से सडक तक फैल गया है | समझदारी सरकार और सत्तारूढ़ दल को दिखानी है, जिद छोड़ना होगी |
देश की वित्त मंत्री ने लोकसभा में बजट से पहले आर्थिक सर्वे पेश करके भावी अर्थव्यवस्था की तस्वीर दिखाने की कोशिश की। दरअसल, हर साल पेश किये जाने वाले आर्थिक सर्वे को आर्थिकी पर आधिकारिक रपट माना जाता है, जिसमें जहां देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति से अवगत कराया जाता है वहीं आगामी नीतियों व चुनौतियां का जिक्र होता है। जिसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों की आर्थिक प्रगति का भी मूल्यांकन होता है। साथ ही सुधारों का खाका भी नजर आता है। भारत की साड़ी आर्थिकी किसानी पर निर्भर है | किसान खेत की जगह सडक पर है संसद और बजट की किताब या सर्वे में कुछ भी बात हो मूल बात किसान खेत में नहीं है |
वैसे भी लॉकडाउन के बाद देश की अर्थव्यवस्था ने जिस तेजी से गोता लगाया है वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जहां २३.९ प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी, वहीं दूसरी तिमाही में गिरावट अनुमान से कम ऋणात्मक रूप से ७.५ प्रतिशत रही, जिसके पूरे वित्तीय वर्ष में ऋणात्मक रूप से ७.७ प्रतिशत रहने का अनुमान है। देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने हेतु क्रय शक्ति बढ़ाना तथा मांग व आपूर्ति में संतुलन कायम करना सरकार की प्राथमिकता होगी। आप माने न माने भारत कृषि प्रधान देश है और सरकार खेत की जगह खलिहान की बात जैसे मुहावरे की तरह हल निकाल रही है | ऐसे प्रयासों इ परिणाम क्या होते हैं ? सब जानते है |
राकेश दुबे
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