रेवांचल टाइम्स डेस्क - बीते कल भोपाल में चार व्यक्तियों ने आत्महत्या कर ली | मानव आत्महत्या को अंतिम प्रयास में असफलता के बाद मुक्ति के अंतिम हथियार की तरह प्रयोग करता है | सरकार के पास इसका कोई इलाज नहीं है, परन्तु समाज के पास है | भारत में समाज के स्तर पर भी इन दिनों, सह्रदयता कुछ कम होती दिख रही है | वस्तुत: भारत उन देशों में शुमार होता जा रहा है, जहां हर साल बड़ी संख्या में लोग विभिन्न कारणों से आत्महत्या कर लेते हैं| राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि 2019 में 1.39लाख लोगों अपनी ही जान ले ली|
इस बेहद चिंताजनक आंकड़े का एक भयावह पहलू यह है कि इनमें से 93016 मृतकों की आयु 18 से 45 साल के बीच थी| यदि 2018 के आंकड़ों से तुलना करें, तो पिछले साल आत्महत्या के मामलों में जहां 3.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, वहीं अपने ही हाथों अपनी इहलीला समाप्त करनेवाले युवाओं की संख्या में चार प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गयी है|
इन दिनों एक अजीब सा अवसाद समाज के कामकाजी और मध्यम वर्ग पैठता जा रहा है |मनोवैज्ञानिक इसे अवसाद की पहली सीढ़ी बता रहे हैं, पर इसके गंभीर होने की आशंका से भी इंकार नहीं कर रहे हैं |यह अवसाद बच्चों से लेकर बूढों तक में है | शहर में बसने वाला मध्यम वर्ग, और वे लोग जिनके इस दौरान काम धंधे चौपट हो गये हैं, या जो बेरोजगार हो गये और ज्यादा निराश दिखाई दे रहे है | मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिको के पास अधिक संख्या में वे रोगी आ रहे हैं, जो जीवन से निराश हो कर अब जीवन के अंत की बात करने लगते हैं | जीवन का प्रकृति द्वारा अंत या नैराश्य के कारण आत्महत्या जैसी बात करने वालों को के लिए विभिन्न परामर्श और दवा की सलाह भी देने की जानकारियां मिल रही है | आत्म हत्या का सोच ही उसके क्रियान्वयन की पहली सीढ़ी होती है, जिसे समय अगर उचित परामर्श और मार्गदर्शन न मिले तो दुर्घटना से इंकार नहीं किया जा सकता|
हमारे देश की आबादी में युवाओं और कामकाजी उम्र (15 से 59 साल) के लोगों की तादाद आश्रितों यानी बच्चों और बुजुर्गों से ज्यादा है| इस स्थिति को जनसांख्यिक लाभांश कहते हैं और किसी भी देश के विकास के लिए यह एक आदर्श स्थिति होती है| आत्महत्याओं के आंकड़े जनसांख्यिक लाभांश से पैदा हुए उत्साह के लिए चिंताजनक हैं और सरकार एवं समाज के स्तर पर इसे रोकने के लिए ठोस प्रयासों की दरकार है|
ब्यूरो की रिपोर्ट में खुदकुशी की जो वजहें बतायी गयी हैं, उनमें पारिवारिक साल स्थिति, प्रेम संबंध, नशे की लत, मानसिक स्वास्थ्य में गड़बड़ी आदि प्रमुख हैं| यदि 18 से 45 साल के मृतकों की बात करें, तो पारिवारिक कारण सबसे बड़े कारक के रूप में सामने आते हैं| भारत जैसे देशों में सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर व्यक्ति के जीवन में परिवार की बड़ी अहम भूमिका होती है| यदि पारिवारिक कलह या आपसी संबंधों के बिगड़ने या आर्थिक स्थिति खराब होने जैसी स्थितियां जानलेवा होती जा रही हैं, तो सभी को इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है| किसी भी परेशानी का सामना मिल-जुलकर किया जा सकता है|
ऐसा कर न केवल जीवन को बचाया जा सकता है, बल्कि उसे संवारा भी जा सकता है. युवा मृतकों में हजारों की संख्या छात्रों की है| वर्ष 2018 में हर रोज 28 छात्रों ने खुदकुशी की थी, जो दस सालों में सर्वाधिक औसत था| वर्ष 2019 के आंकड़ों में भी सुधार के संकेत नहीं हैं| ऐसे में छात्रों पर परिवार को दबाव कम करना चाहिए तथा शैक्षणिक संस्थाओं को सचेत रहना चाहिए| विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, अवसाद दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी है| भारत में यह चुनौती बेहद गंभीर है.
इस साल कोरोना महामारी और आर्थिक संकट से बड़ी समस्याएं पैदा हो गयी हैं| कुछ महीनों से लगातार आत्महत्या की खबरें आ रही हैं| अन्य स्वास्थ्य व चिकित्सा से जुड़ी स्थितियों की तरह हमें मानसिक स्वास्थ्य के महत्व को प्राथमिकता के साथ रेखांकित करना चाहिए| सलाहकारों और चिकित्सकों की उपलब्धता को सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि हर आत्महत्या यह सूचित करती है कि ऐसे कई अन्य लोग ठीक वैसी ही मनःस्थिति से घिरे हैं और उन्हें बचाया जा सकता है|
रेवांचल टाइम्स
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